31 मई, 2010

तुम कहाँ हो


एक बादल आकर रुका है
कुछ नम सी हवाओं ने छुआ है
तुम कहाँ हो
बूंदें बरसने को हैं
मन सोंधा हो उठा है
चेहरे के इन्द्रधनुषी रंग
आँखों से टपकने लगे हैं
कोई देख ले
उससे पहले आ जाओ

फिर जमके बारिश हो
हवाएँ चलें
बिजली चमके
बादल गरजे
तुम्हारे साथ
मैं धुली धुली पत्तियों सी हो जाऊँ



29 मई, 2010

भय और सच


सुबह आँखें मलते
सूरज को देखते
मैं सच को टटोलती हूँ
ये मैं , मेरे बच्चे और मेरी ज़िन्दगी
फिर एक लम्बी सांस लेती हूँ
सारे सच अपनी जगह हैं

अविश्वास नहीं
एक अनजाना भय कहो इसे
हाँ भय
उन्हीं आँधियों का
जिसने मेरा घरौंदा ही नहीं तोड़ा
मुझे तिनके-तिनके में बिखराया

तिनकों को मैंने समेटा
मन्त्रों से सुवासित किया
होठों पर हँसी दी
पर एक अनजाने भय से दूर नहीं हो सकी
न इन तिनकों को कर पायी...

अब इसे लेकर ही यात्रा करनी होगी
क्योंकि
आँधियों से लड़ने के लिए इस भय का होना ज़रूरी है
भय ही सांकलों को बन्द करता है
भय ही कहता है चौकन्ने रहो
भय ही हमारी पकड़ को मजबूत करता है
आहट कोई भी हो
हमें सजग करता है
सुबह सूरज को भी गौर से देखकर ही मानती हूँ
यह वही अपना सूरज है
वही सुबह है
और चेहरों को टटोलकर
विश्वास से दिन की यात्रा करती हूँ


25 मई, 2010

लौटो , लौट आओ


कुछ कदम पीछे लौटो
आगे विनाश है
सब ख़त्म होनेवाला है
...
पीछे मुड़ो
किसी हल्की सी बात पर
घंटों हंसो
तनी नसों को आराम दो

लौटो , लौट आओ
दोष किसी और का नहीं
संभवतः
दोष तुम्हारा भी नहीं
दोष ' और ' की चाह
प्रतिस्पर्धा की दौड़ की है
क्या मिलेगा गुम्बद पे जाकर ?

अभी भी वक़्त है
पीछे मुड़ो
बनावटीपन का चोला उतारकर
माँ के हाथों एक निवाला आशीषों का लो
भाई बहनों संग कोई खेल खेलो
जकड़े दिल दिमाग
अकड़े शरीर से निजात पाओ
आओ....

फिर न कहना
'हमें पुकारा नहीं'

24 मई, 2010

इन्हें आता है







यह तो होना था ...
मैं नहीं रही !
मेरी आँखों , मेरे स्वर
मेरे स्पर्श की गर्माहट से सुरक्षित मेरे बच्चे
शून्य में हैं !

यूँ समझा दिया था सब -
'जब भी यह दिन आए
अपना हौसला मत खोना
जैसे अब तक मेरे पास
अपनी बात रखते आए हो
तब भी रखना - जब मैं ना रहूँ
यकीन रखना
मैं सब सुनूंगी अपनी दुआओं के साथ
सारी ख्वाहिशों को रूप देती रहूंगी ...'

अभी अचानक मेरा सो जाना
उन्हें हतप्रभ, हताश कर गया है !
जल्द ही
वे मेरे शब्दों के विश्वास की रास थाम लेंगे
बचपन से
इसी रास पर तो ऐतबार किया है !

कोई है?
इनके नाम जो मैंने शुभकामनाओं
और रक्षामंत्रों की असली थाती जमा की है
वह इनके हाथ, इनके मस्तिष्क
इनके मन में रख दो
और बस....

फिर इनका स्वाभिमान , इनका आत्मविश्वास
इनके साथ होगा
आंसू पोछकर
एक दूसरे की हथेली मजबूती से पकड़ना
इन्हें आता है
राहों को मोड़ना
इन्हें आता है
सबकुछ सहकर चलना
इन्हें आता है ...

16 मई, 2010

इस बार नज़र नहीं लगने दूंगी !



कितनी छोटी सी लड़ाई थी
पर हमारे चेहरे गुब्बारे हो गए थे
- महीनों के लिए !
जिद उस उम्र की
इगो का प्रश्न था
हार कौन माने !
पर उम्र का ही तकाजा था
या फिर ख़्वाबों का ...
हम हारे तो साथ साथ !
जाने कब इस हार की रुनझुन ने
कानों में धीरे से कहा - 'इसे प्यार कहते हैं'
.....
हम समझ पाते
सपनों में हकीकत के रंग भर पाते
तब तक...
आकाश काले मेघों सा स्याह हो गया
दिशाएं फूट फूटकर रोयीं
और प्यार के पन्ने खो गए !

बहुत ढूंढा उन पन्नों को
जिस पर हमने अपनी हथेलियों के
मासूम चित्र उकेरे थे
कुछ गीत गुनगुनाये थे
एक दूसरे की आँखों की ख्वाहिशें चित्रित की थीं

भटकन इतनी बढ़ी कि
मन विरक्त हो चला
लोगों के चेहरे उबाने लगे
और ...........

तभी हवा कानों में कह गई
'मैं हूँ' .... ये तुम थे
और देखते - देखते मेरे सारे खोये सपने
मुझसे खेलने लगे
और गुरुर से भरे अपने चेहरे को
मैंने छुपा लिया
--- इस बार किसी की नज़र नहीं लगने दूंगी !

12 मई, 2010

उसके लिए ...


मिट्टी के चूल्हे पर
शर्मीली आँखों का तवा रख
ख़्वाबों की रोटियाँ सेंक ली है
लरज़ते ख्यालों की सब्जी में
प्यार का तड़का लगाया है
उसके आने की खुशबू
हवाओं में फैली है
इंतज़ार की अवधि को
जायकेदार नमक के साथ
कुरमुरा बनाया है
मनुहार की चाशनी
उसे रोक ही लेगी ...

05 मई, 2010

समर्पण !


समर्पण .... कैसा?
किसको?
समर्पण का आधार
कभी भी शरीर नहीं होता
शरीर !
तो कोई भी पा लेता है
आत्मा !
- अमर है
समर्पण का स्रोत है
गंगा वहाँ से निकलती है
...
गंगा में नहाना
और गंगा को समझना
- दो अलग बातें हैं ...

गंगा में नहाकर
ना तुम पवित्र होते हो
ना गंगा मैली होती है
... मृत , तुक्ष शरीर को लेकर
तुम्हारी संतुष्टि
क्षणिक है,
वहम है

आत्मा का समर्पण
रेगिस्तान में भी
रिमझिम बारिश का एहसास देता है
जो इस बारिश से अनभिज्ञ रहा
वहाँ कैसा समर्पण?

04 मई, 2010

दर्द का सत्य


अगर तुम दर्द के रास्तों को नहीं पहचानते
तो ज़िन्दगी तुमसे मिलेगी ही नहीं
दर्द के हाईवे से ही
ज़िन्दगी तक पहुंचा जाता है ..
रास्ते में सत्य का टोल नहीं दिया
तो आगे बढ़ना मुमकिन नहीं
जिन क़दमों को
तुम आगे बढ़ जाना समझते हो
वह तो फिसलन है
कोई सुकून नहीं वहाँ !
सत्य ही ज़िन्दगी देता है
दर्द ही रिश्ते देता है ...
तो बंधु ,
जब आंसुओं से आगे का दृश्य धुंधला हो जाये
तो सुकून की सांसें लो
पल भर की दूरी पर
ज़िन्दगी गुलमर्ग सी खडी मिलेगी
और कुछ रिश्ते
- जो मजबूती से तुम्हारे साथ होंगे !

03 मई, 2010

ऐसा क्यूँ?


कई लोग के ब्लॉग खुलते नहीं, जब भी खोलती हूँ warning आता है, जिसमें फिलहाल राज भाटिया जी, वंदना जी(आज ऐसा शुरू हुआ) और कुछ और परिचित ब्लॉग हैं...ऐसा क्यूँ?

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...