30 अक्तूबर, 2010

फिर से है !



सारे दरवाज़े बन्द कर
चुन लाई थी कुछ मोहक सपने
और सिरहाने छुपा दिया था ...
चमकती आँखों पर
पलकों का इठलाकर झपकना
शुरू हुआ ही था
कि दरवाज़े थरथराने लगे !

जाने कौन सा कतरा दर्द का
बाकी रह गया था
जो सर पटक रहा था दरवाज़े पर ...

सपने चौंक पड़े
पलकें स्थिर हो गईं
शोर से निजात पाने को
दरवाज़ा खोलना पड़ा...

दर्द का स्वागत करने को
हौसलों की लौ को तेज किया है
....
सुबह का इंतज़ार फिर से है !

28 अक्तूबर, 2010

अस्तित्व


हम सच को नकार के
अपने बाह्य और अंतर को नकार के
एक दूसरा स्वरुप प्रस्तुत करते हैं
तो फिर हम हम नहीं रह जाते ...

हम कहते हैं
मृत्यु अवश्यम्भावी है
फिर भी इससे लड़के हम खुद को जीते हैं न
जो हमारे अंतर को ख़त्म करना चाहता है
उसके आगे
खुद को प्रोज्ज्वलित करते हैं न

पर जब हम उसकी रौशनी से प्रभावित होते हैं
तो हमारा कमरा स्याह हो जाता है
हम हम नहीं रह पाते

अपनी सोच को बनावटी मत बनाओ
जब रोने का दिल करे तो हर बार हंसो मत
ऐसे में
तुम्हारा अस्तित्व तुम्हारे एकांत में
तुम्हें जीने नहीं देगा
और तब तुम खुद के आगे ही नहीं
पूरे समूह में पागल घोषित किये जाओगे ...

क्या कहा ?
'क्या फर्क पड़ता है?'
पड़ता है -
आईने में तुम खुद को ताउम्र ढूंढते रह जाते हो
और आईना
वह भी छद्म रूप धारण कर लेता है !

20 अक्तूबर, 2010

फिर उलझन कैसी ?



तुम्हें जन्म दिया माँ ने
सिखाया समय ने
तराशा खुद को तुमने
तेज दिया ईश्वर ने
यूँ कहो अपना प्रतिनिधि बनाया ...
इसलिए नहीं कि तुम सिर्फ निर्माण करो
अनचाहे उग आए घासों को हटाना
यानि नेगेटिविटी को मारना भी तुम्हारे हाथों में दिया ...

'निंदक नियरे राखिये'
क्रिमिनल सोचवालों को नहीं
....
उसकी पूरी ज़मीन काँटों से भरी होती है
उसे सींचना
तुम्हारा बड़प्पन नहीं
अन्याय को बढ़ावा देना है !

तुमको गुरु ने जो दिया
लड़कर, सहेजकर ....
उसमें फिर से गिद्ध दृष्टि ?
अपनी ताकत को अपने सुकून में लगाओ
एक और लड़ाई में नहीं
तुम्हारे पदचिन्ह तभी गहरे होंगे ...
जब तुम सत्य का साथ दोगे
तो इन चिन्हों के अनुयायी होंगे
ये बात और है कि संख्या कम होगी
क्योंकि सत्य की राह को
कम लोग ही अख्तियार करते हैं !

क्या गुरु के इस वचन में सारे अर्थ नहीं निहित हैं ---
'कृष्ण को पाना है
तो अर्जुन बनो
राधा बनो
सुदामा बनो '...

कृष्ण दुर्योधन के सारथी नहीं बने
दुर्योधन ने चाहा भी नहीं ...
सत्य जानते हुए भी पितामह
कर्तव्य की दुहाई देकर कौरवों के साथ रहे
तो परिणाम ???

कर्तव्य और अधिकार का एक व्यापक अर्थ है
दोनों अकेले कभी नहीं चलते
ना एकतरफा कर्तव्य होता है
ना अधिकार !

तुम स्वयं वह आधार हो
जिससे अमरनाथ का शिवलिंग बनता है
स्मरण करो---
एक साल यह शिवलिंग नहीं बना ... क्यूँ ?
अन्याय के दृश्यों ने बर्फ को भी
मूक और अपाहिज बना दिया !

तुम अपने द्वन्द से
अनचाहे विषबेलों को सींच रहे हो
उनको उखाड़ोगे नहीं
तो ईश्वर की इच्छा ही अधूरी होगी ...

कुरुक्षेत्र के मैदान में
सब अपने ही औंधे पड़े थे
पर न्याय तो यही था ...
कुंती को युद्धिष्ठिर ने जो शाप दिया
वही सही था ...
कैकेयी को यदि भरत ने नहीं गलत कहा होता
तो कैकेयी को अपनी गलती का आभास न होता !
भरत ने उनका त्याग किया ...
कर्ण ने अपने तिरस्कार को याद रखा
... ५ पुत्रों का वरदान देकर
अपनी मृत्यु का दान दिया
पर दुर्योधन की मित्रता का मान रखा

ईश्वर ने सत्य का स्वरुप हर बार दिखाया है
तो फिर उलझन कैसी ?

19 अक्तूबर, 2010

सागर


खो देने का भय जब प्रबल होता है
तो सागर नाले की शक्ल में जीना चाहता है
...
पर उसकी उद्दात लहरें
उसका स्वाभिमान होती हैं
जो किनारे से आगे जाकर
अपना मुकाम ढूंढती हैं
...
उस खोज में
अगर वह कुछ देता है
तो कितना कुछ बहा ले जाता है
संतुलन सागर को नहीं
सागर तक जानेवालों को रखना होता है ...

09 अक्तूबर, 2010

अच्छा लगता है


खुद को लिखना
खुद को पढ़ना
खुद को सुनना
अच्छा लगता है...
खुद को देखना
खुद संग मुस्कुराना
अच्छा लगता है ...

यह अकेला बड़ा सा कमरा
मुझसे कभी नहीं उबता
खुद को पुकारना
खुद का आना
इसे भी अच्छा लगता है...

खुद संग बैठकर चाय पीना
बिस्तर की सलवटों को ठीक करना
अच्छा लगता है
खुद के सन्नाटे में
खुद के विचारों का शोर
अच्छा लगता है ...

खुद से दोस्ती
खुद से प्यार
ज़बरदस्त विश्वास
आखिर ये मेरा 'मैं' मुझसे दूर जायेगा कहाँ
खुद में पूरा रहना
अच्छा लगता है !!!


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आदरणीय शेखर सुमन जी ने जो प्रयास शुरू किया है हमारी यादों में झाँकने का
एक खूबसूरत अर्थ तलाशने का , उसमें खुद को पाना अच्छा लगा है

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...