28 जनवरी, 2012

हम एक हुए !



दलदल में तुम थे
दलदल में मैं थी
तुम मुझे निकाल सकते थे
मैं तुम्हें
पर ....
हम दूसरों के बनाये दलदल में धंसते गए !
ये तो हमारी मजबूत पकड़ थी
कि हम साथ मरे....
अब दलदल में जो कमल खिला है
वह मंदिर का हकदार बना है
तुम मुझे पहचानते हो
मैं तुम्हें ...
लोगों की मंशाओं के दलदल से
हम ऊपर हो गए
जाने कितनी सारी गांठें खुल गई
प्रभु के चरणों में हम एक हुए !

18 जनवरी, 2012

मैं और मेरा ही मैं ...



" तुम थकती नहीं ?
तूफ़ान के मध्य भी कैसे खा लेती हो ?
कैसे हँस लेती हो ?
कैसे औरों के लिए सोच लेती हो ? "
..... पूछता था मेरा ही मैं मुझसे !

हंसकर कहती थी -
" मैं तो जिनी हूँ थकूंगी कैसे ...
और पापा डांटा करते थे खाना नहीं खाने पर
तो जब कभी नहीं खाने का विचार आता है
तो पापा का गुस्सा भी याद आता है
फिर सबसे बड़ी बात ये है कि
मुझे भूख लग जाती है
...
ना हंसकर मैं मान लूँ कि मैं हार गई
रोने लगूँ ?
रुलानेवालों को सुकून दूँ ?
...
औरों के लिए सोचना बड़ी बात कहाँ है
ये 'और' तो मेरे अपने ही हैं न ....

'मैं' को चैन नहीं मिलता
वह बाएँ दायें से उदाहरण उठाता -
" इसे देखो , देखो इसकी गंभीर मुद्रा
बड़े से बड़े जोक पर भी मातमी सूरत बनाये रखता है
थकान हो ना हो - दिखाता ज़रूर है
चेहरा ऐसा कि बगल में गीत बज उठे
" ग़म दिए मुस्तकिल कितना नाज़ुक है दिल ..."
और एक तुम हो !
अभावों के बीच भी रानी बनी बैठी रहती हो ..."

......बात दरअसल ये है मेरे मैं
कि कुछ लोग मानसिक रईस होते हैं
और इसी रईसी के संग आब होता है
मेरी हँसी से फूल झड़ते हैं
ऐसा मेरा ख्याल होता है
मेरा साई जादुई छड़ी सा मेरा विश्वास होता है
फिर इस जन्नत को अपने चेहरे से कैसे हटा दूँ !...

अपने मैं को एक विराम देती
तो कोलाहल का चिंतन शुरू होता
" कोई तो बात होगी
जो इसकी हँसी नहीं थमती ...
तूफानों के मध्य चेहरे पर रौनक !
झूठ बोलती है ....
समय पर नहाकर अच्छे कपड़े पहन लेती है
अरे छोटी सी घटना पर मन नहीं होता
और यह तो हर दिन ..... कोई तो बात ज़रूर होगी !"

कोलाहल के चिंतन की परतों में
क्षणांश को उलझता था मन
पर अपने लगाए बिरवों पर नज़र जाती
उनकी मासूम काया ...
बेपरवाह मैं सिंड्रेला के सपने देखने लगती
और लाल परी मेरे साथ हो जाती ....

एक नहीं दो नहीं ..... कई साल हवाई जहाज पर
ज़ूऊऊऊऊऊऊऊऊउन से गुजर गए ...
अचानक मेरे " मैं " ने मुझसे पूछा है -
" अरे ... क्या बात है
तुम इतनी उदास !
ये आँखों के नीचे आंसुओं के दाग !
ये थका थका चेहरा !
अभी तो तेरे उत्तरदायित्व बाकी हैं
फिर मस्तिष्क में यह रक्त प्रवाह ! -
कुछ हो गया तो ?
तुम्हें पता हैं न असलियत ?-
सब बिखर जायेगा .... "

" मैं " के इस सवाल से
कही गई बातों से
मन डरा है .... धो लिया है चेहरे को
अच्छे से बाल बाँधा है
दांये बाँए देखकर मुस्कुराई हूँ
अपनी कृत्रिमता मुझे नज़र आई है
खुद को आँखें दिखाते मैंने पूछा है -
" तूफानों के वेग को इतनी सहजता से तुमने लिया
अब जब सिर्फ पूरब तुम्हारे हिस्से आया है
तो ऐसी सूरत .... "

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

17 जनवरी, 2012

ठहरे हुए वक़्त ...


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सरगोशी तो यही रही
कि वक़्त ठहरता नहीं
पर जाने कितने वक़्त ठहरे हुए हैं ...

वो जो दहीवाला आता था हमारे घर
और हम उससे आँखें बचा सारी मलाई निकाल लेते थे
फिर भी वह हँस देता था ...

वो अमरुद के पेड़ की फुनगियों से
बतिये अमरुद तोड़ना
उसमें भी स्वाद पाना ...

वो बिना रिश्तों के रिश्ते
चाचा मौसा मामा .... चाची मौसी मामी
संयुक्त परिवार सा एहसास ...

वो बिसनाथपुर के एक घर तक सुबह की सैर
वहीँ दातुन करके चुड़ा दही खाना
और इत्मीनान महसूस करना ...
चेहरे , नाम याद नहीं -
पर वो छोटा सा घर , चांपाकल याद है ...

फूलों से सजा अपना घर
घुंघरू वाले परदे
वो खुले आकाश के नीचे चादर बिछा
हम भाई बहनों की बेसिर पैर की बातें
पापा के ऑफिस जाने का इंतज़ार
अम्मा के साथ गीत गीत खेलना
नुक्कड़ की दूकान से समोसे , बेसन के लड्डू मंगाकर खाना
मूंगफली के साथ नमक को चटखारा बनाना
बेबात हँसना , लड़ना और शिकायत करना ....

वो बच्चों के साथ गाना 
छुप्पाछुप्पी खेलें आओ  …

वो मिक्कू का मुडमा मोड से वाइपर के चलने पर हूँ हाँ हूँ हाँ करना
वो उसका ए दुल्हिन बुलाना
वो उसका कहना - पपलू धूप में गया है
और सोचना कि माँ बुद्धू बन गई ...

वो खुशबू का गाना -
मेरे अच्छे चंदा मामा कल घर मेरे आ जाना
प्रेयर सॉन्ग में गाना -
माना कि कॉलेज में ....
मेरा मुंह अपनी ओर खींचना
बारी बदलने पर भी मेरे पास सोना
......

वो अंकू का बुलाना - भाईईईईईईइ
स्कूल में रोना कि टीचर ने मेरा फोटो रख लिया
बाहर चलते हैं खाने - कहना ....

ऐसे जाने कितने वक़्त आज तक सिरहाने पड़े हैं !
चादर बदल दो तकिये का खोल बदल दो
दूसरी बातों में दिन गुजार दो
पर किसी शरारती बच्चे की तरह ये सारे वक़्त
गले में बाँहें डाल मुस्कुराने लगते हैं
...... जाने ऐसे कितने मोड हैं वक़्त के
जो ठहरे हुए हैं
ज़िक्र ज्यों हीं शुरू होता हैं
सबके चेहरे पर एक मीठी मुस्कान पसर जाती है
जाड़े की धूप सी
एक ही बात दुहराते दुहराते
कुछ भी तो पुराना नहीं लगता .....

वक़्त बीत जाता है
या
ठहर जाता है - कहिये तो .....

15 जनवरी, 2012

ख्यालों की जड़ें - सिर्फ अपनी होती हैं !



शाम होते तुम्हारी यादें
मेरी आँखों के पोरों में
हरसिंगार की तरह खिल उठती हैं
तुम्हारे होने का सुकून
रात भर सपने सा चलता है ...
ये सपने मेरा वजूद हैं
या मैं सपनों का वजूद हूँ
- नहीं जानती
पर मेरे वजूद में तुम हो
यह सच है !
यह सच न होता
तो न हरसिंगार होता
न रात महकती
....
रात की खुशबू से हैरान , परेशान
सब ढूंढते हैं जड़ों को ...
सुनते ही नहीं मेरी
कि ये सब मेरे ख्याल हैं
और ख्यालों की जड़ें - सिर्फ अपनी होती हैं !
.....
पर आदत से मजबूर लोग
एक चेहरे की और
किसी प्रमाण की तलाश में
बदहवास
अपने मन के घर से बेघर हो रहे
....
मानते ही नहीं कि
मेरे ख्यालों की शाखाओं पर हरसिंगार खिलते हैं
और मेरी हथेली में बरसते हैं -
वही मेरे शब्द हैं
एहसास हैं
हमसफ़र हैं ..... पगडंडियाँ भी सुवासित हैं
जड़ें सृष्टि की रगों तक हैं
मिलें तो कैसे ?!!!

07 जनवरी, 2012

जाओ यहाँ से ....



मत करो कोई प्रश्न मुझसे
जवाब बनाते बनाते
खुद को जांबांज दिखाते दिखाते
मैं एक खाली कमरे सी हो गई हूँ !
संजोये हौसले
मंद बयारें
और मासूम मुस्कुराहटें
मैं लुटाती गई
और तुम सब पूछते गए
ये कहाँ से ? ये कहाँ से ?
और मैं झूठे नाम गिनाती गई
हटो यहाँ से -
इन सबों की स्वामिनी मैं खुद हूँ
अगर कभी कोई नाम लिया
तो उसे भी अपनी सोच से धरोहर बनाया
धरोहर कुछ था नहीं !
अपने प्रश्नों के उत्तर एक दिन तुम्हें मिलेंगे ज़रूर
कि सबकुछ जानते हुए
तुम अनजान बने रहे
और मेरे आगे एंवे प्रश्न रख
मुझे उलझाते रहे ...
जानती हूँ फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा
.....
खैर ,
मेरे उत्तरदायित्व अभी पूरे नहीं हुए हैं
अपने कमरे को मुझे खजानों से भरना है
हौसले , मंद बयारें और मासूम मुस्कान !
क्योंकि इसके बगैर
मुझसे निकली शाखाएं पनपेंगी नहीं
और मैं इन शाखाओं पर
विश्वास के फल लगे देखना चाहती हूँ
तो ....
प्रश्नों के पिटारे बन्द करो
और जाओ यहाँ से ....

05 जनवरी, 2012

मेरे ख्वाब



सघन मेघों की तरह कुछ मेरे ख्वाब हैं
जो बरसना चाहते हैं
पनपना चाहते हैं
किसी मीठे फल की तरह !
कुछ ख्वाब हैं इन्द्रधनुषी
जिनसे एक यादगार होली खेलना चाहती हूँ !
एक ख्याल है हिन्दुस्तां की राजकुमारी जैसे
जो जिल्लेइलाही के खून की सज़ा
माफ़ कर देना चाहती है
क्योंकि सलीम में ही वो आग नहीं थी
उसके कान ही हल्के थे
चाहता गर सलीम
तो होश में आते उन दीवारों को गिरा देता
जिसमें अनारकली चुनी गई थी !
एक वजूद है अलादीन के चिराग सा
जादुई छड़ी है
धरती को आसमां
आसमां को धरती बनाने का
बियाबान रास्तों में बिखेरने के लिए
कुछ खिलखिलाते बीज हैं
जिसकी खनक हर दरख्तों पे होगी
गानेवाली एक चिड़िया है
जो कभी खामोश नहीं होगी
प्रकृति के सन्देश देती रहेगी
सूर्योदय की चहक बन
चनाब से सोहणी को पुकारेगी
महिवाल की जीत बन
प्रेम को अमर कर जाएगी ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...