30 अप्रैल, 2012

प्रभु को आगाह किया है




शून्य में कौन मुझसे कह रहा
क्या कह रहा ...
कुछ सुनाई नहीं देता !
सन्नाटों की अभेद दीवारें पारदर्शी तो है
इक साया सा दिखता भी है
कभी कुछ कहता
कभी चीखता सा ...
पर क्या कह रहा है
कैसे जानूं !
सुनने से पहले देखना चाहती हूँ
साया है किसका
चेहरे की असलियत मिल जाए तो जानूं
यह विश्वास दे रहा है या चेतावनी !
समय के परिवर्तित खेल में
माना डर लगने लगा है
पर यह भी सच है
कि मैंने सारी तैयारी कर ली है ...
जिन ख़्वाबों की तस्वीर को मैंने हकीकत बनाया है सारी उम्र
उसके इर्द गिर्द काँटों का बाड़ा बन खुद खड़ी हूँ
खड़ी रहूंगी
और प्रभु को आगाह किया है
' जब तक शून्य का भय ख़त्म नहीं होता
तुम दिए की मानिंद अखंड जागते रहोगे
ठीक उसी तरह
जिस तरह ख़्वाबों को हकीकत बनाने में
तुम निरंतर जागते रहे हो ....
मुझे थकान न हो इस खातिर
अपनी हथेली का सिरहाना मुझे दिया है
.... तो आज हकीकत के लिए जागना होगा
अपनी हथेली पर
मेरी हकीकत को सुलाना होगा ' ....

28 अप्रैल, 2012

कोई पहचान शेष नहीं



शिकायतों का काफिला यूँ निकला
कि सब अकेले हो गए
श्रेष्ठता के दावे में सब औंधे गिर पड़े ...
खुद में ही कोई पहचान शेष नहीं
तो दूसरे की आँखों में क्या देखें
सबके सब महज खड़े से हैं
पाँव किसी के भी नहीं ...
एक दूसरे की बैसाखियों पर हँसते हँसते जाना
सब घिसट रहे हैं
...
जिसे देखो वो अपने पक्ष की सुरक्षा में
दिल से परे दिमाग से चल रहा है
और दिमाग व्यवहारिकता के पहिये पे चलता है ...
व्यवहारिकता ज़रूरी है
पर मात्र व्यवहारिकता से संतुलन नहीं बनता
..... किसी भी निर्माण में समूह होता है
सृष्टि के निर्माण से चाय बनाने तक में !
अकेला चना भांड नहीं फोड़ता
ऐसे ही तो कोई नहीं कहता
किसी भी पूर्णता के लिए
एक से भले दो ही होता है
पर आह !
यहाँ सब अकेले होते जा रहे हैं
महंगाई तो भाषण है
उससे अधिक तो बुद्धिजीवी बढ़ गए हैं
सामान्य की कोई कीमत ही नहीं रही !
सामान्य असामान्य के तिरस्कृत माहौल में
' मैं ' का वर्चस्व है
' मैं ' की माँग है
और खरीदार कोई नहीं
खुद की बोली खुद का क्रय
और अकेलापन !!!!!!

26 अप्रैल, 2012

शब्दों के अरण्य में



शब्दों के अरण्य में
विचारों की गोष्ठी होती है
सुख दुःख आलोचना समालोचना
प्यार नफरत ...
भावों की अध्यक्षता में
अपना अस्तित्व ढूंढते हैं
किसी के हिस्से देवदार
किसी के हिस्से चन्दन वृक्ष भुजंग से भरा
किसी को कंटीली झाड़ियाँ ...
इस अरण्य में कुछ भी अर्थहीन नहीं
बस अर्थ अलग अलग हैं !
अर्थ अलग ना हो
तो बात नहीं बनती
ऐसे भी पक्ष विपक्ष से ही सरकार चलती है
भले ही वह भावनाओं की हो .....
एक ही गुट हो
विरोध की ज्वाला न हो
तो सबकुछ निश्चेष्ट , भोथर हो जाता है
चांदी हो या सोना
रखे रखे अपनी चमक खो देता है
चमक के लिए सान पर चढ़ाना ज़रूरी होता है !
................
बेशक शेर जंगल का राजा होता है
पर उसे शह और मात खरगोश भी देता है
कालांतर में खुद - कछुए से हार जाता है ...
शब्द अरण्य में इन्हीं भावों से
जीवन को चलाया जाता है
रामायण महाभारत वेद पुराण
इसी अरण्य की जड़ें हैं
पंचतंत्र की कहानियाँ यहीं लिखी गई हैं
...........
आग कितनी भी लगाई जाए
वजूद सृष्टि का इस अरण्य में
निर्भीक होता है
प्रभु के निर्माण को रचनाकार
अलग अलग सांचे देता है
जिसे दुनिया तडीपार करती है
उसे भी इस अरण्य में
एक पहचान देता है
वह पहचान
जिससे तड़ीपार भी अनजान होता है !
....
कहाँ जाना था किसी ने भी
कि एक दिन ऐसा आएगा
सारथी के छल की आलोचना होगी
दुर्योधन के पक्ष से सोचा जायेगा
राम को दरकिनार कर
रावण को पूजा जायेगा !!!

24 अप्रैल, 2012

ऐसी माँ ही ईश्वर होती है !



प्यार करनेवाली माँ
जब नीम सी लगने लगे
तो समझो -
उसने तुहारी नब्ज़ पकड़ ली है
और तीखी दवा बन गई है !
याद रखो -
जो माँ नौ महीने
तुम्हें साँसें देती है
पल पल बनती काया का
आधार बनी रहती है
तुम्हारी नींद के लिए
पलछिन जागती है
वह तुम्हारे लिए कुछ भी कर सकती है
तब तक -
जब तक नीम का असर
फिर से जीवन न दे जाए !
माँ प्यार करती है
दुआ बनती है
ढाल बनती है
तो समय की माँग पर
वह नट की तरह रस्सी पर
बिना किसी शिक्षा के
अपने जाये के लिए द्रुत गति से चल सकती है
अंगारों पर बिना जले खड़ी रह सकती है
वह इलाइची दाने से कड़वी गोली बन सकती है
जिन हथेलियों से वह तुम्हें दुलराती है
समय की माँग पर
वह कठोरता से तुम्हें मार सकती है ...
तुम्हें लगेगा -
माँ को क्या हुआ !
क्योंकि तुम्हें माँ से सिर्फ पाना अच्छा लगता है
यह तुम बाद में समझोगे
कि माँ उन चीजों को बेरहमी से छीन लेती है
जो तुम्हारे लिए सही नहीं
और सही मायनों में
ऐसी माँ ही ईश्वर होती है !

21 अप्रैल, 2012

चलता है न ...



हम लिखते कुछ और हैं
लोग बिना पढ़े
कहते कुछ और हैं ...
मूल्याँकन हम करने लगते हैं अपना
पढ़ने लगते हैं खुद से खुद को
कहाँ चूक हुई !

पढ़ते पढ़ते जाना कि
रचनाओं की सीढ़ियाँ तो मजबूत ही बनाई हमने
दरअसल वे चढ़े ही नहीं
एड़ी उचकाकर शब्द टांग गए ...
रचना हतप्रभ !
- हम हतप्रभ !
खामखाह होते रहे बेवजह -
....
कोर्स में जब कवियों को हम पढ़ते थे
तो बहुत स्पष्ट होने के लिए
कुंजिका साथ रखते थे
उसके बाद भी
कई कवितायेँ समझ में नहीं आती थी
तो एक पल में बिना कुंजिका
भीतर उमड़ते भावों को समझना ज़रा मुश्किल है
और कवि के मुख्य भावों की कुंजिका
कवि ही बना सकता है
और कभी वह भी लाचार हो सकता है !
....
याद आती है सूर की वे पंक्तियाँ -
" 'सूरदास'तब विहंसी यशोदा
ले उर कंठ लगायो ... "
एक लड़के ने इसका अर्थ कुछ यूँ लिखा
" कवि सूरदास ने हंसकर
तब यशोदा को गले से लगा लिया "
जानते थे अर्थ तो हँस पड़े बेसाख्ता
पर अगर नहीं जानते
तो इसे ही समझते !
.......
पढ़कर समझने में होती है कठिनाई
तो बिना पढ़े हे सखे
तूने बात कैसे बनाई ?
लिखने का शौक हो
तो बिना पढ़े बात नहीं बनती
और यदि यह बस रेस है घोड़े का
तब तो ....
सूरदास का यशोदा को गले लगाना
चलता है ...

16 अप्रैल, 2012

कवि निराकार में भी आकार ...



कवि हमेशा लिखता है
चेतन अचेतन
धरती आकाश
शून्य आधार
निराकार में भी आकार ...
पर आपने पहली बार जो पढ़ा
वह पहली रचना
और आखिर में जो पढ़ा
वह रचना आखिरी के दायरे में होती है
पर -
कवि प्रारंभ और अंत से मुक्त होता है !
वह प्रकृति के कण कण में प्रस्फुटित साज है
बंजर में भी आगत
रेगिस्तान में आभास
अकाल में पानी की एक बूंद
मृत्यु में जीवन ... !
कवि को लगता ज़रूर है
कि शब्द खो गए हैं
पर खोने के एहसास में उसके प्राप्य की पोटली होती है !
सपनों में लिखी रचनाएँ
खुली आँखों में अदृश्य हो जाती हैं
पर वह लिखी होती हैं
शब्द भावों की अग्नि में तपे कवि के चेहरे पर
उनको पढ़ने के लिए पारदर्शी आँखें होती हैं
जिनकी पुतलियों में अग्नि सा तेज होता है !
कवि .... शब्द बीज गिराता जाता है
इस बात से अनजान
कि कहाँ गुलमर्ग बना
कहाँ चनाब
कहाँ कैलाश !
उसकी यात्रा कहो या जीवन दर्शन
वह होता है निरंतर चलायमान
सुबह शाम दिन रात की तरह
कभी शाखों पर
कभी शाखों से उतरता
कभी घोंसलों में
कभी परिंदे के परों में ..... कवि निरंतर होता है
अथक अविचल अविरल ...

13 अप्रैल, 2012

खुद को बेहतर दिखाने के क्रम में !



ज़िन्दगी से जुड़े दर्द को
जानलेवा हम बनाते हैं
कोई मोह नहीं होता
सब दिखावा रहता है ...
खुद को बेहतर दिखाने के क्रम में
सहनशीलता की मूरत बने हम
आकाश से धरती
फिर धरती से पाताल में चले जाते हैं ...

धरती और आकाश का ज्ञान तो हमें है
पर पाताल से सिर्फ शाब्दिक नाता है
तो निःसंदेह पाताल को स्वीकारना संभव नहीं होता ...

फिर हम जो सुनते हैं
उससे अलग कुछ कहते हैं
और कह दिया तो सिद्ध करने की होड़
.....
संस्कार की दुहाई देते देते
हम हैवान बन जाते हैं !
खुद के सिवा कुछ भी
नज़र नहीं आता
बाकी सबकुछ हलक के बीचोबीच !
....
न निगलते हैं
न बाहर निकाल पाते हैं
उबजुब सी स्थिति
लाइलाज !
बीमार सी ज़िन्दगी
और आस पास कोई नहीं
.....
सब कहीं न कहीं
किसी न किसी तरह से आगे निकल गए हैं
सबको लगता है -
मंजिल मिल गई
और जश्न !
अकेले मनाने को रह गए हैं
बस .....
खुद को बेहतर दिखाने के क्रम में !

10 अप्रैल, 2012

नित नित प्रभु का ध्यान धरो

इस भजन को लिखकर तो मैं खुद में तीरथ महसूस ही कर रही थी .... सजीव सारथी जी के माध्यम से यह आदित्य विक्रम जी तक पहुंचा
और आज आदित्य जी द्वारा कम्पोज़ किये इस गीत को उनकी ही आवाज़ में सुनकर मेरे रोम रोम ने शिव साई हरि के समीप खुद को पाया -
आइये मिलकर सुनें ...

ध्यान धरो
तुम ध्यान धरो
ध्यान धरो
तुम ध्यान धरो ....नित नित प्रभु का ध्यान धरो

मन के गहरे
स्रोत हैं सारे
मंत्र के बीज
लगाओ सारे
क्या है तेरा क्या है मेरा
भवसागर से बाहर आओ

ध्यान धरो
तुम ध्यान धरो
ध्यान धरो
तुम ध्यान धरो ... नित नित प्रभु का ध्यान धरो

अहंकार तजो
सच अपनाओ
मन के अन्दर
शिव को पाओ
नहीं ज़रूरत किसी तीरथ की
ध्यान धरो प्रभु को तुम पाओ

ध्यान धरो
तुम ध्यान धरो
ध्यान धरो
तुम ध्यान धरो ...नित नित प्रभु का ध्यान धरो

अग्नि में जो कुछ भी डालो
सब जल स्वाहा होता है
काम क्रोध और लोभ को अपने
मन की अग्नि में डालो
कंचन बनकर तुम निखरो
जगमग जग को कर जाओ ...

ध्यान धरो
तुम ध्यान धरो
ध्यान धरो
तुम ध्यान धरो ...नित नित प्रभु का ध्यान धरो

09 अप्रैल, 2012

विरोधाभास क्यूँ ???



किसी की मौत पर
हम तुम शोक मनाते हैं - पूरे 13 दिन का
आर्यसमाजी रीति से जिसने जल्दी कर लिया
उसकी जबरदस्त आलोचना करते हैं !
किसी के चले जाने का शोक
तयशुदा दिन से पूरा हो जाता है क्या !
ग़मगीन माहौल आत्मा को संतुष्ट करता है
या समाज को
या परम्परा को ?

जो चला गया
उसकी कमी तो जीवनपर्यंत होती है
कई बार आंसुओं का सैलाब उमड़ता है
यादों के बादल छूकर बहुत कुछ कह जाते हैं
यादें किसी को दिखाने के लिए नहीं आतीं
ना ही वक़्त का मुंह देखती हैं
कभी कभी तो कई रातें
यादों में ही गुजर जाती हैं - तर्पण आंतरिक होता है .
प्यार हो
श्रद्धा हो -
तो एक बूंद आंसू से तर्पण होता है
यादों के मंत्रोच्चार ही आत्मा को राहत देते हैं ...

शरीर तो नश्वर है
आज नहीं तो कल जाना ही है
पर आत्मा तो अमर है ...
है ना ?
फिर किसी की आत्मा को मरा देखकर
किसी की आत्मा को मारते देखकर
तर्पण कैसे होता है
शोक की विधि क्या होती है
....
ओह ! यह तो अजीब प्रश्न उठ खड़ा हुआ !
पर प्रश्न वाजिब है न ?
हम क्या करते हैं -
जिसकी आत्मा को मार दिया है
उसके हर निवाले पर अपनी हिकारत देते हैं
" कैसे खाया जाता है !"
और जिसकी आत्मा मरी होती है
उसके विरुद्ध कोई समाज परिवार नहीं होता
बल्कि सभी मरी आत्मा के साथ चलने लगते हैं
चाटुकारिता का तर्पण अर्पण करते हैं
ब्राह्मण , भिक्षुक को भले न दें कुछ
पर आत्माविहीन वक्र चेहरे के आगे
कशीदे पढ़ने के साथ
मनचाहे भोज अर्पित किये जाते हैं !
....................
समाज तो वही है
फिर विरोधाभास क्यूँ ?

06 अप्रैल, 2012

मेरा सपना साकार करो



ओ कृष्ण कृष्ण
मैं हुई गोकुळ ....
यमुना कह लो या कहो कदम्ब ,
ढूंढ लो मुझको बांसुरी में ,
खग भी हूँ मैं , लकुटिया भी
सेस गनेस महेस दिनेस हूँ मैं
आदि अनादि
अनंत अखंड
अच्छेद अभेद सूबेद हूँ मैं
छोहरिया मैं और छाछ भी मैं
धूरि बनी मैं चरणों की
बनी तेरी ही सुन्दर चोटी
पग में बजती पैंजनिया
तेरी मंद मंद मुस्कान बनी
खुद से खुद की सौतन हो गई
कभी राधा हूँ कभी मीरा सी
सत्यभामा और रुक्मिणी सी
..... आरम्भ हूँ मैं माँ देवकी सी
विस्तार हूँ मैं यशोदा सी
पुकारो पुकारो पुकारो मुझे
मईया कहकर
राधा कहकर
उपकार करो सुदामा हूँ मैं
सुदर्शन चक्र बना धारण कर लो
मोर मुकुट बना मेरा मान गहो
ओ कृष्ण कृष्ण हुंकार करो
हुआ धर्म का नाश
अवतार धरो , मेरी बांह गहो
मेरा सपना साकार करो
.... अवतार धरो अवतार धरो ...

04 अप्रैल, 2012

यह इन्कलाब ज़रूरी है दोस्तों !



मैं जीवन का सत्य लिखना चाहती हूँ
बिल्कुल हँस की तरह
दूध अलग पानी अलग ...

पानी की मिलावट
यानि झूठ की मिलावट अधिक होती है
पर न ग्वाला मानता है न दुनिया
ग्वाले के स्वर में भी सख्ती
झूठे के स्वर में कभी तल्खी कभी बेचारगी
.......
रिकॉर्ड करो - कोई फर्क नहीं पड़ता
झूठ के पाँव बड़े मजबूत होते हैं
शोले के ठाकुर के जूतों जैसे - कील लगे !
यदि आपको अपनी इज्ज़त से प्यार है
तो कीलों से डर जाना पड़ता है ...
....
पर डर से सत्य मर तो नहीं जाता !!!
वह आत्मा को कुरेदता है
झूठ से हुए जघन्य अपराधों के बोझ तले
रात भर छटपटाता है !
छटपटाता है झूठ को तेज स्वर से कहनेवाले
वीभत्स चेहरों के स्मरण से !
....
ओह ! कितनी चालाकी से झूठ फुफकारता है !!
विषधर भी अवाक !!!
सोचता है - ' मेरा काटा तो बच भी जाता है
पर झूठे के नुकीले झूठ से काटा गया सत्य
दर दर भटकता है - न मौत , न जीवन ! '
.........
इस तकलीफ ने मेरे अन्दर से
मौत का खौफ मिटा दिया
रिश्तों की अहमियत मिटा दी
...... कितनी घुटन होती है ...
जब अपने झूठ का जाल बुनते हैं
और आत्मा से परे उसे सच बनाते हैं !
रिश्तों की भूख
रिश्तों के भय में परिवर्तित हो गई !

... इस भय से परे
हँस बनकर मैं सच लिखना चाहती हूँ
कम से कम सच तो मेरा सम्मान करेगा
और झूठ से ज़ख़्मी कई अबोले चेहरे
सच को सच कहने का साहस करेंगे
समय से पहले मरकर भी
खुद पर नाज करेंगे...


यह इन्कलाब ज़रूरी है दोस्तों !

01 अप्रैल, 2012

तुम और शब्द - परिवर्तन का आह्वान



शब्दों की झोपड़ी में तुम्हें देखा था !!!...

इतनी बारीकी से तुमने उसे बनाया था
कि मुसलाधार बारिश हतप्रभ ...
- कोई सुराख नहीं थी निकलने की
कमरे में टपकने की !
दरवाज़े नहीं थे -
पर मजाल थी किसी की कि अन्दर आ जाए
एहसासों की हवाएँ भी इजाज़त लिया करती थीं !

न तुम सीता थी न उर्मिला न यशोदा
न राधा न ध्रुवस्वामिनी न यशोधरा ....
पर सबकी छाया प्रतिविम्बित थी तुम्हारे अक्स में
यह उन शब्दों का कमाल था
या फिर तुम्हारी खामोश निष्ठा का !

कमाल था तुम्हारे तेज का
तुम्हारे सत्य का
तुम मोम की तरह पिघलकर भी
कभी ख़त्म नहीं हुई
...
तुम्हारी चीखें -
तुम्हारे चेहरे की तनी नसों में संजीदगी से कैद थीं
जिन्हें शब्दों के मरहम से
तुमने वीनस बना दिया था !
अन्याय के काल्पनिक विरोध से
रक्तरंजित तुम्हारी हथेलियाँ
रामायण से कम नहीं लगती थीं
तुम्हारी प्रोज्ज्वलित आँखों के आगे
तुम्हारे दर्द का कुरुक्षेत्र नज़र आता था
लक्ष्यभेदी वाणों की गूँज सुनाई देती थी
और अविरल मुस्कान में एक अंतहीन तप !

.... झोपड़ी की दीवारों से लगे शब्द
आँगन में तुलसी की महिमा गाते थे
दीपक से निःसृत भावनाओं के पवित्र उजास
पूरे परिवेश में
अनकहे एहसासों का ग्रन्थ लिखते थे

.................................थे से है की यात्रा में
तुम्हारा हारना समय को मंजूर नहीं
तुम समय के रोम रोम से निकली
अपने स्वाभिमान के प्रति सजग तपस्विनी रही हो
समय से पूर्व
या समय के बाद
तुम्हें मरने का अधिकार नहीं
जिसकी झोपड़ी के आगे शब्दों का खुदा खड़ा हो
एहसासों की देवी हो
उसकी राहें कभी अवरुद्ध दिखें
यह किसी को स्वीकार नहीं !
रंचमात्र भी विस्मृति की शक्ल तुम्हारे लिए नहीं
मत भूलो -
तुम्हारी धड़कनों में वेद ऋचाएं धड़कती हैं
आँखों में आध्यात्मिक पांडुलिपियाँ हैं
तुम्हारे लिए हाँ तुम्हारे लिए
पूरी धरती कागज़ की शक्ल लिए खड़ी है
प्रकृति प्रदत्त हर मौसम की कलम में
भर लो नदी और सागर
लिखो वह सब , जो अब तक अनकहा है
हर अनकहे में रंग भर दो
तुम्हारे कमरे के एक एक शब्द सारथी की तलाश में हैं
उठो -
ज्ञान के सुदर्शन चक्र से
परिवर्तन का आह्वान करो .....

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...