31 जुलाई, 2012

यातना संकल्प का शंखनाद है






सती ने खुद को कमज़ोर जाना
अतिशय जिद्द में खुद को अग्नि में डाला
पार्वती ने भी यही समझा
पर तप की अग्नि में निखरती गयीं
बस परखना है खुद को
सुनना है ईश को
फिर देखो
तुम्हारी कोमलता में
लचीलेपन में ही परिवर्तन है ...
ईश्वर ने सिर्फ तप ही किया है
तप ऋषियों के लिए है
जो तप करता है
परिवर्तन वही कर पाता है
और यह ईश्वर के तप का प्रभाव है
कि उसने नारी की कोमलता में
तप का संधान किया ...
फिर क्या प्रश्न
और किससे ?
शुम्भ, निशुम्भ , महिषासुर , रक्तबीज ना हों
तो दुर्गा की जय जयकार
निराकार में आकार
नवरात्री की पावनता
दशहरे का जयघोष सुवासित न हो !
स्त्री का समर्पण शिव है
स्त्री का मातृत्व शिव है
स्त्री का वियोग शिव है
स्त्री का त्रिनेत्र शिव है ......
परिस्थिति उसका रूप निर्धारित करती है
या शिवयुक्त प्रयोजन
यह आत्ममनन है
राग द्वेष दया क्षमा प्रेम नफरत
स्वीकार तिरस्कार .... सब है चारों तरफ
कब किसकी गिरफ्त से
कौन सा स्वरुप प्रगट होगा
यह कौन जाने ...
............
भ्रूण हत्या नहीं होगी
तो शाप फलित कैसे होगा
सरेराह चीखें नहीं सुनाई देंगी
तो कमज़ोर स्त्री दुर्गा कैसे बनेगी
नव रूप के लिए
अवस्थाएं तय हैं ...
हर यातना संकल्प का शंखनाद है
और कदम किसी और के नहीं
देवनिर्मित दुर्गा के ....

29 जुलाई, 2012

वक़्त का इंतज़ार सही नहीं ...





मैं नहीं समझ पाती उनको , उस वक़्त को
जो बिना किसी आकस्मिक सूचना के
सुनामी ले आते हैं
और मैं किसी अनजान सड़क पर
दूर दूर तक संवेदनशीलता की तलाश में
किसी अपने को तलाशती हूँ ...
मानती हूँ
समय बड़ा बलवान
पर कई बार हम जानबूझकर
उसे बलवान बना देते हैं ...
कितनी बार समझाया है अपनों को
कि जब घबराहट , दर्द , भय से
दिल दिमाग का चक्का जाम हो
कोई राह ना मिले
तो वक़्त का इंतज़ार सही नहीं ...

वक़्त का इंतज़ार
स्वाभाविकता को निगल जाता है
होनी यही थी
या हमने होनी को अपनी मर्ज़ी की शक्ल दे दी
इसे समझना , समझाना
मुश्किल होता है
क्योंकि शब्दों के पासे अलग अलग होते हैं
.... कोई शब्द गले लग जाता है
कोई वक्र निगाहों से देखता है
तो कोई शतरंज खेलता है !

शह और मात -
क्षणिक ख़ुशी है
दर्द को बांटकर
फिर साथ चलना ही ज़िन्दगी है
और आंसू में भी ख़ुशी है !

आकस्मिक सुनामियाँ भी थम जाती हैं
यदि होनी की मिट्टी
चाक पर समय से चढ़ाई जाए
नहीं तो सब टूटकर बिखर जाता है
कारण - सुनामी नहीं
अन्दर का अकेलापन होता है
जिसकी आह वक़्त की मोहताज होती है
........

27 जुलाई, 2012

सच क्या है ?







सच क्या था , क्या है , क्या होगा
वह -
जो तुमने
उसने
मैंने -
कल कहा
या आज सोच रहे
या फिर कल जो निष्कर्ष निकला
या निकाला जायेगा !
सच का दृश्य
सच का कथन
...... पूरा का पूरा लिबास ही बदल जाता है !

सच भी समय के साथ चलता है
और समय .... कभी इस ठौर
कभी उस ठौर
जाने कितने नाज नखरे दिखाता है ...
आँखें दिखाने पर
शैतान बच्चा भी कुछ देर मुंह फुलाए
चुपचाप बैठ जाता है
हवा थम जाती है
पर यह समय .....
सच के पन्ने फाड़ता रहता है
हर बार नाव नहीं बनाता
यूँ हीं चिंदियों की शक्ल में उन्हें उड़ा देता है !

क्या समय मुक्ति का पाठ पढ़ाता है
या सच में सच बदल जाता है
हमारे चेहरों की तरह ...
कितना मासूम था यह चेहरा
फिर नजाकत , शोखी ... अब गंभीर
कल खो जायेगा चेहरा
और फिर कभी याद नहीं आएगा !!!
ओह -
ईश्वर को इस भुलभुलैये के खेल में
क्या मज़ा मिलता है
..........
शायद वह चाहता है कि हम थक जाएँ
और खुद आउट होने की ख्वाहिश रख दें
क्या यह ख्वाहिश सच है ?


25 जुलाई, 2012

हर आज में है वो यानि इमरोज़...




वह कोई भारी भरकम व्यक्तित्व के साथ किसी से नहीं मिलता , उसके व्यक्तित्व से झरना बहता है . एक मुट्ठी दाने लिए जब वह कबूतरों से बातें करता है तो कबूतर भी चिरंजीवी हो उठते हैं ... हर आज में है वो शक्स अपने प्यार के साथ - आज यानि इमरोज़ और प्यार - अमृता .
पहली बार बहुत हिम्मत जुटाई थी मैंने और मोबाइल पर नम्बर घुमाया था ... धड्कनें साफ़ सुनाई दे रही थीं . पता नहीं किस आवाज़ में इमरोज़ बोलेंगे , बोलेंगे भी या नहीं - और उधर से फोन उठा - हलो .... और अपरिचित सा कुछ नहीं लगा .
निर्वाण की हर सीमाओं को छू लिया है इमरोज़ ने - कोई उनके पास से खाली हाथ नहीं लौटता . न उम्र की बंदिशें , न इन्सान की , न जाति न धर्म ! उनके साथ समय भी आज यानि इमरोज़ बन जाता है . कोई फ़कीर जैसे जीवन की सौगात दे जाए , इमरोज़ से मिलकर , उनसे बातें कर ऐसा ही लगता है . स्नेह, आशीष, भरोसा - सब मिलता है . उनके संपर्क में आकर खुद का व्यक्तित्व ख़ास बन जाता है .
हाँ मैं भी ख़ास हो जाति हूँ , जब डाकिया मेरी दहलीज पर आता है और एक लिफाफा गुनगुनाती नदियों का थमा जाता है ... लिफाफे पर लिखा होता है -
पोएम्स फॉर पोएम्स - है न ख़ास एहसास ! मैं वाकई कविता की त्रिवेणी बन जाती हूँ और शब्द मेरे भीतर डुबकियां लगाने को अधिक आतुर हो जाते हैं . मेरे शब्द जब तक नहाकर , अपनी आकृति में प्राण-प्रतिष्ठा करें , उससे पहले उन ख्यालों , उन नज़्मों से गुजरें - जो इमरोज़ ने मुझे देकर कहा - तुम्हारे नाम !

"पता नहीं
मैंने ये जागकर देखा है
या ख्वाब में
कि मैं अपने आपको फूलों में खड़ा पाकर
ये देखता हूँ
शबनम सो रही है
खुशबू भी खामोश है
सूरज भी अभी आया नहीं
और हवा के साथ एक नज़्म
चली आ रही है...

देखते-देखते
सूरज भी आ पहुंचा है
और साथ ही एक किरण सी नज़्म
भी आ गई है...

अब ये नज़्म मेरे सामने
चुपचाप खड़ी मुझे देख भी रही है
और हँस भी रही है....

अभी-अभी
मेरे मोबाइल पर
एक नज़्म का मैसेज मिला है
" कि मैंने ही तेरे दिल का
दरवाज़ा खटखटाकर
तुम्हें जगाया है
ये कहने के लिए
कि आज मेरा जन्मदिन है...."

कुछ क्षणिकाएँ -

(१)
कुछ भी दुहराने से
शब्द ताजा नहीं रहते
किसी भी चारदीवारी में
ना हवा ताजा रहती है
ना ही किसी की सोच..

खुली हवा में
नई सोच ही ताजगी है
नदी में भी ताजगी
नए पानी से ही रहती है ..

(२)

वह नदी है
मैं किनारा
वह नदी की तरह बहती आ रही है
और मैं ज़रखेज़ होता जा रहा हूँ

(३)

सुबह भी उसके साथ
दिन भी उसके साथ
शाम और रात भी
ख्वाब भी उसके साथ
यह रहमत होती रहती है
अपने आप
बगैर खुदा को जगाये ..

और ---
(१)

मैं पीले फूलों का पेड़ हूँ
तुम सब
इस पेड़ के नीचे बैठकर
मेरे फूलों से खेलते रहो
तब तक
जब तक यह पेड़ है ...

(२)

मैं हवाओं पर लिखता रहता हूँ
तुम इन हवाओं को पढ़ती जाओ
प्यार की खुशबू मिलती रहेगी ...

मेरे लिए मेरे कहने पर इमरोज़ ने मेसेज करना सीखा , उम्र से परे इतनी सरलता , सहजता ..... खुशियों की पिटारी से नज़्म निकलते और एक पल में मुझ तक आ जाते -
(१)
तुम तो बॉर्न हीर हो
और जो लिखती हो
उसे रांझा पढ़ लेता है
तुम लिखती रहो
वो पढता रहेगा
इंतज़ार करता रहेगा ..

(२)
तुम सीक्रेट की (चाभी) हो
अपने आप को पाने की
और हर कोई सीक्रेट नहीं हो सकता !

(३)
तेरी कविता तो दिन के ख्वाब बन रहे हैं
यह कविता
कहाँ इंतज़ार करती है
-किसी रात का

(४)
तेरी जगी-जगी नज्में और सोच
मन में महक रही है
तुम्हें पढ़-पढ़कर
तुम्हें सोच-सोचकर
ज़िन्दगी गुडमोर्निंग करती रहती है....

(५)
हर कोई पूछता है
प्यार क्या होता है
.... मिलकर रहना,
बस इतना ही !

कितनी सरलता से इमरोज़ कहते हैं -
"सतयुग मनचाही ज़िन्दगी का नाम है
किसी आनेवाली ज़िन्दगी का नहीं ..." सच है , हम इंतज़ार से हटकर अपने हाथों अपनी ज़िन्दगी को सतयुग बना सकते हैं , अपने छोटे से घर को पर्ण कुटी ....

अपने और अमृता के बारे में ढेर सारी बातें बताने के क्रम में इमरोज़ ने कहा था -
"एक बार अमृता ने पूछा
'तू क्या बनना चाहता है ?'
मैंने कहा-
लोकगीत !
वो मुझे देख देख हंसती रही
मैं कहता गया-
मुझे रंगों से खेलना अच्छा लगता है
मेरे ख्यालों को नज़्म बनना अच्छा लगता है
पर मुझे
न आर्टिस्ट बनना है
ना कवि
बस मुझे लोकगीत ही रहना है ..."

सुनकर लगा कि फुर्सत से खुदा ने इस गीत के बोल लिखे , जिसे जो सुन ले - वह कुछ पल के लिए ही सही - एक लोकगीत बन जाता है .

कल डाकिया फिर मेरे घर आया और दे गया इमरोज़ के एकांत में पनपते एहसासों को , जिसे यदि उनके साथ मिलकर मैंने बांटा नहीं तो मैं कविता नहीं कहलाउंगी और मैं चाहती हूँ कि पोएम्स फॉर पोएम्स हमेशा हो .
" एक दिन दिल का दरवाज़ा खटका
कोई सामने खडी थी
पहचानी नहीं गई ...
कहा,
मैं वही हूँ -
तुम्हें फिर मिलूंगी वाली नज़्म
जो जाते वक़्त तुम्हें दे गई थी !
तुम्हें याद हो के ना ,
तू मुझे रोज सुबह की चाहें भी देता था
और रात को एक बजे चाय बनाकर दे जाता था
तब - जब मैं लिख रही होती थी ...

उसे देखकर उसे सुनकर
मुझे वह याद आ गई
साथ उसकी नज़्म भी
और अपनी चाहें भी ...
पूछा -
पर तू नज़्म देकर चली कहाँ गई थी
क्या अनलिखी नज्में लिखने ?
तो कहाँ है वो नज्में ?
कहा उसने-
तुम तक आते आते
सारी की सारी नज्में
राह में राह हो गई

फिर न जाना कहीं ...
ठीक है - नहीं जाऊँगी ...

इस बार मैं अपने आपके साथ जागकर
सीधी तेरे पास आई हूँ
अपने अजन्में बच्चे भी साथ लेकर ...
चल पहले तू चाय बना
चाय पीकर हम पहले की तरह रसोई करेंगे
और मिलकर घर घर बनेंगे

फिर पूछा उसने -
तेरे सब रंग कहीं नज़र नहीं आ रहे ....

मेरे सब रंग अब हीर गाने लग गए हैं

क्या सुरीला परिवर्तन है ...
तू अब वक़्त की वादियों में रोज हीर गाया करना
और मैं तेरे लिए हीर लिखा करुँगी
हीर बनकर , राँझा बनकर
और वारिस बनकर ...................

पढ़ती गई हीर रांझे में लिपटी अमृता इमरोज़ की यादों को और उम्र को नकारकर , अकेलेपन को नकारकर इमरोज़ के हर कैनवस पर उभरती अमृता को ...

बिना किसी उम्मीद के खूबसूरत ख्याल देना यदि सीखना हो तो इमरोज़ से मिलिए

22 जुलाई, 2012

बुरा सुनो , बुरा देखो, बुरा कहो



बुरा सुनो , बुरा देखो, बुरा कहो
तभी सत्य की लड़ाई लड़ सकोगे
अन्यथा संस्कारों के पीछे
दांतों तले जीभ रख सोचते रह जाओगे
क्या कहें , कैसे कहें !
सुनने में ही जिस बात से मन खराब होता है
देखने से वितृष्णा होती है
उसके विरोध में उठने के लिए
कान खुले रखो
आँखें खुली रखो
मीठी बातों की चाशनी में लिपटे रहने से
कुछ हाथ नहीं आता
.....
सत्य को उजागर करने के लिए
भगत बनो
एक बम विरोध का
तबीयत से उछालो
क्या होगा अगर गिरफ्तार हो जाओगे तो ?
सुखदेव, आजाद , राजगुरु ,
बटुकेश्वर दत्त तो मिलेंगे ...
मिट्टी तो जाने कब से नम है
बीज डालो तो सही ...
आपसी प्रतिस्पर्धा से क्या पाओगे -
यही न - कि फिर ईस्ट इंडिया कम्पनी आएगी
और टुकड़ों में बंटे तुम्हारे स्व के अहम् को
अपनी जीत बना जाएगी !

अपने पुरुषत्व को जानो
नारी का सम्मान करो
बच्चों की मासूम किलकारियों को
रक्तरंजित मत करो ...
घर बैठे आज़ादी नहीं मिलती
ना सुरक्षा
सुरक्षित आजादी के लिए
तुम सबको बाहर आना होगा
झांसी की मनु बहन को
राजतिलक लगाना होगा !

एक ' आह ' भर लेने से क्या होगा !
सत्यमेव जयते कार्यक्रम की तारीफ कर
आगे बढ़ जाने से क्या होगा !
एक गुवाहाटी नहीं
कई सड़कें , इमारतें , गलियाँ चीख रही हैं
कान बन्द कर लोगे , आँखें बन्द कर लोगे
ज़ुबान नहीं खोलोगे
तो फिर .....

कसो फब्तियां
पैसे कमाओ
इज्ज़त का खुला व्यापार करो
अपनी अपनी आत्मा को कुचल डालो ...
बन्द दरवाज़ों के भीतर
वीभत्स ठहाके लगाओ
और साबित करो
कि अंग्रेजों ने तो भगतसिंह को
समय से पहले फांसी दी
तुमने तो उसके टुकड़े कर डाले
और मनु बहन को नीलाम कर दिया !!!

17 जुलाई, 2012

ख्वाब क्यूँ ?



पूछते हो - ख्वाब क्यूँ ?

ख्वाब ही तो संजीवनी हैं
जब भूख लगती है
और खाने को कुछ नहीं होता
तो ये ख्वाब रोटी बन जाते हैं
सुनाते हैं लोरियां परियों की
जो दे जाती हैं सुनहरी भोर कुछ कर दिखाने की !

ख्वाब आकाश को धरती पर ले आते हैं
चाँद से होती है गुफ्तगू
सितारे हथेलियों में छुप जाते हैं
देती हूँ आकाश को पानी
लेती हूँ आकाश से आशीष
पानी के एवज में एक मीठी नदी का
ख्वाब से ही तो नदी निकलती है
कह सकते हो इन ख़्वाबों को शिव की जटा
शिव का त्रिनेत्र
पार्वती का तप
राधा का समर्पण
कृष्ण की बांसुरी
सिद्धार्थ का निर्वाण ........ सब तुम्हारे हाथ में है
जो ये ख्वाब हैं !

ख्वाब ही शोध है
इतिहास है
इमारत से खंडहर
और खंडहर से इमारत है
बिना ख्वाब के तो चाय नहीं बनती
चिन्नी डालो
दूध डालो
पत्ती डालो
अदरक, इलायची , मसाले .....
एक चुटकी ख्वाब नहीं
तो चाय बड़ी फीकी होती है !

ख्वाब ही आजादी की निष्ठा देते हैं
इकबाल को कहते हैं -
' ज़रा नम हो तो यह मिट्टी बड़ी ज़रखेज़ है साकी '
ख्वाब ही न हो तो न कवि
न कहानीकार
न व्यंग्यकार ........ कुछ भी नहीं
ये ख्वाब ही तो आदम और हव्वा हैं
श्रद्धा और मनु हैं
धर्म के नाश के साथ
ये ख्वाब ही अवतार हैं

अब तुम कहो - ख्वाब के बिना जीवन क्या ?

14 जुलाई, 2012

जब जब अन्याय होता है कोई सामने नहीं आता !



मैं तुम्हें नहीं जानती
नहीं देखा है तुम्हें
नहीं मिली हूँ कभी
फिर क्यूँ तुम मेरे अन्दर सिसक रही हो
चीख रही हो !
कैसे कैसे दरिन्दे घूम रहे हैं
मुझे तो बहुत डर लगता है
रास्ते भी मेरे देखे हुए नहीं
पर ... उस एक जगह निश्चेष्ट हो गई हैं आँखें
जहाँ तुम्हारे सपनों की सनसनाहट बदल गई है
और मेरी रक्त धमनियां ऐंठ गई हैं ...
क्या कहूँ
क्या करूँ
तुम तो मेरे अन्दर काँप रही हो
मेरी आँखों से बरस रही हो
मेरी जिह्वा पलट गई है
और तुम्हारी सारी चीखें चक्रवात की तरह
मेरी शिराओं में मंथित हो रही हैं !
नाम से परे
पहचान से परे
रिश्तों से परे
तुमने मुझे पकड़ रखा है
और मैं जी जान से इस कोशिश में हूँ
कि तुम्हारा सर सहला सकूँ
अपनी आँखों से एक कतरा नींद दे सकूँ
अपनी गोद का सिरहाना दे दूँ
और कहूँ किसी थके हुए मुसाफिर की तरह
इसे अपनी हार मत समझना
दहशत के समंदर से संभव हो तो बाहर आना
जो सपने आज से पहले तुमने देखे थे
उनको फिर से देखने का प्रयास करना !!
मुझे मालूम है -
कई आँखें तुम्हें अजीब ढंग से देखेंगी
कई उंगलियाँ तुम्हारी तरफ उठेंगी
सवालों की विभीषिका तुम्हें चीरती रहेंगी
......
एक बात गाँठ बाँध लो -
जब जब अन्याय होता है
कोई सामने नहीं आता
मरहम खुद लगाओ
या अंगारों पर दौड़ जाओ
पर चलना अपने पैरों से होता है ...
और यह इतना आसान नहीं ,
जितना कह जाने में है !
खुद तुम्हें अपनी चीखों से
सिसकियों से मुक्ति नहीं मिलेगी
अनसुना करके मुस्कुराने पर भी लोग तिरस्कृत करेंगे
तुम्हें इस सच के दहकते अंगारों में झुलसते हुए निखरना होगा
एक यकीन देती हूँ ----
तुम मेरे अन्दर चाहो तो ताउम्र चीख सकती हो
मैं इस आग को जब्त कर लूँगी
दुआ करुँगी .......
और शून्य में तुम्हें देखती रहूंगी !!!

09 जुलाई, 2012

तौबा तौबा ------ प्यार को प्यार ही रहने दो



अक्सर सुना है .... मेरे बेटे को फंसा लिया !!!
अरे कभी तो कहो - या कहने दो - बेटी को फंसा लिया !
बेटा न हुआ - जैसे चूहा !
और किसी की बेटी - चूहेदानी ...
!!!!!!!!!!!!
अरे रिश्ता बनाना ही है
बनना ही है
तो बिना कमर कसे बनाओ न
हिकारत के शब्द कहने ज़रूरी हैं क्या !
.....
पूरी ज़िन्दगी उन शब्दों के दलदल में डगमगाती है ...
हर बार नए सिरे से सर उठाती है
और बेवजह लानत मलामत कर
आंसू बहाती है .
प्यार होना था - हो गया
फिर कौन फंसाया
कौन फंसा की कैसी माया !
खामखाह प्यार करनेवालों के बीच
एक बीज जंग का क्यूँ ????????
खाते-पीते , उठते - बैठते तकरार
तुम्हारी माँ ने मेरी माँ को ऐसा कहा !
हाँ तो तुम्हारी माँ भी बोली थीं !
ऐसी बोली मेरी माँ की नहीं .......
तुम्हारे पापा , मेरे पापा
......
बाप रे बाप !!!
ऐसे में बिना फंसाए पूरी ज़िन्दगी फंस जाती है
और गीत बजता है -
क्या यही प्यार है !

और फिर कलह -
तुम तो रहने ही दो
ड्रामा बन्द करो
जो गीत मुझे बजाना चाहिए
वो तुम बजा रहे/रही !

तौबा तौबा ------ प्यार को प्यार ही रहने दो
चूहेदानी न बनाओ !

07 जुलाई, 2012

चक्रव्यूह ....... !!!





चक्रव्यूह ....... !!!
कोई विशेष कला न जाने की थी
न आने की !
निष्ठा थी आन की
..... अभिमन्यु ने उसी निष्ठा का निर्वाह किया
और चक्रव्यूह में गया ...
पर निकलना निष्ठा नहीं थी
न निकलने का मार्ग अभिमन्यु ने ढूँढा !
चक्रव्यूह से परे
कटु सत्य का तांडव
अभिमन्यु की मृत्यु का कारण बना
जिसे इतिहास भी अपने पन्नों पर कह न सका !
पाँच ग्राम !
कृष्ण ने दूत बनकर यही तो माँगा था
और ' नहीं ' के एवज में कुरुक्षेत्र का मैदान सजा था !!!
सत्य जो भी हो -
राज्य , शकुनी की चाल
या द्रौपदी का अपमान ...
चक्रव्यूह बने जो खड़े थे
वे सब अभिमन्यु के मात्र सगे नहीं थे
एक आदर्श थे
पर -
जिन हाथों में कभी दुआओं के स्पर्श थे
वे हाथ मृत्यु के बाण साध रहे थे
जिनके चेहरे पर कभी वात्सल्य का सागर था
जिनके मुख से आशीर्वचन निकले थे
दादा , चाचा , गुरु ... -
सब के सब मृत्यु का आह्वान कर रहे थे
इससे बड़ा चक्रव्यूह तो कुछ भी नहीं था
झूठे पड़ते आशीष के आगे
अभिमन्यु की वीरगति
क्षणिक बने चक्रव्यूह से बाहर भी निश्चित थी !
जीवन में हम जब भी हारते हैं
तब अभिमन्यु सी दशा में होते हैं
हमारे आगे हमारे अपने ही होते हैं ---
कभी कारण बने
कभी निर्णायक बने
इस चक्रव्यूह से निकलकर
सिवाए डरावने सपनों के कुछ नहीं रह जाता
तो बेहतर है - चक्रव्यूह में मर जाना
.........
भीष्म ने जब तरकश से मृत्यु बाण निकाल लिया
........................................
फिर कोई कारण
उत्तर
परिणाम
बिल्कुल बेमानी है !

04 जुलाई, 2012

जब - तब



जब हम मान लेते है
कि हमारी बुद्धि श्रेष्ठ है
जब हम ठान लेते हैं
कि किसी की नहीं सुनेंगे
तो अनहोनी बेफिक्र तांडव करती है
....


कल्पना से परे
अजीबोगरीब - हमारे विचार , हमारी शक्ल
अधर में आधार की तलाश में
अलग होते जाते हैं उनसे
जिनकी हथेली में हमारी नन्हीं सी ऊँगली
सुरक्षित होती है !
....
एक नन्हीं सी ऊँगली की सुरक्षा
हाथों की कोमलता में ही नहीं होती
कई बार हथेलियों का
मुट्ठी की शक्ल में कस जाना समय के आगे ज़रूरी होता है !
निःसंदेह तकलीफ होती है ...
पर यदि इस तकलीफ की सुरक्षा ना हो
बुद्धि छोड़ दे हाथ -
फिर जो चोट लगती है
वह तब तक लाइलाज होती है
जब तक उन हथेलियों के बीच हम खुद को रख नहीं देते !
......
अनहोनी को तो हर घड़ी इंतज़ार होता है उस पल का
कि हो द्वन्द विचारों का
कटु शब्दों के शर मन को बेधते जाएँ
रिश्ते पानी की तरह बह जाएँ
वाष्पित हो खो जाएँ .......!

इस खोने को
मोह से मुक्ति नहीं कहते
ना ही मुक्ति मिलती है मोह से
वाष्पित रिश्ते जब बरसते हैं
तब उमस सा खालीपन अपनी बुद्धि पर
फूट फूटकर रोता है बुद्धू की तरह
उन हथेलियों के लिए
जिनमे कसी ऊँगली दबके भी सुरक्षित थी ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...