24 अप्रैल, 2014

ये जीना भी कोई जीना है !!!




हम जो बोलते हैं
उसे तौलते भी जाते हैं
मन इंगित करता रहता है
-ये है सही और ये गलत
गलत को दिखाती मन की ऊँगली
हम धीरे से हटा देते हैं
या फिर तर्कों से भरा ज़िद्दी अध्याय खोल लेते हैं
अपनी बात रखते हुए
सही को काटते हुए
अंततः हम वहाँ पहुँच जाते हैं
जहाँ से लौटना अपमानजनक लगने लगता है !
तटस्थता में हम घुटने लगने लगते हैं
'यह मेरी गलती थी' - इसे कहने में वर्षों लगा देते हैं
जानते हुए भी
कि इसकी घुटन हमें ही जीने नहीं दे रही !!
गलती का एक रास्ता भारी पड़ता है
फिर क्यूँ दोराहे, चौराहे बनाना ?
ज़िद्द की कोई उम्र नहीं होती
वह तो वही दम तोड़ देती है
जहाँ वह जन्म लेती है !
मृत भावनाओं को पालने से
उसकी राक्षसी भूख मिटाने से
कुछ नहीं मिलता
सिवाए बंजर जमीन के
और वहाँ कोई मृगतृष्णा भी नहीं होती
सारे जीवनदायी भ्रम तक खत्म हो जाते हैं
साँसें चलती हैं
तो जी लेते हैं
पर ये जीना भी कोई जीना है !!!

11 अप्रैल, 2014

किसे ?






एक लम्बी सी चिट्ठी लिखना चाहती हूँ 
बहुत कुछ लिखना चाहती हूँ 
पर कोई ऐसा नाम जेहन में नहीं 
जिससे धाराप्रवाह सबकुछ कह सकूँ  … 
 चीख लिखूँ 
 डर लिखूँ 
सहमे हुए सन्नाटे लिखूँ 
सूखे आँसुओं की नमी लिखूँ 
बेवजह की खिलखिलाहट लिखूँ 
लिखूँ आँखों में उतरे सपने  … 
सोच रही हूँ नाम 
कौन होगा वह 
जो बिना किसी प्रश्न,तर्क कुतर्क के 
पढ़ेगा मेरी चिट्ठी 
और समझेगा !
कुछ दूर चलकर ही 
सुनने-समझने की दिशा बदल जाती है 
क्योंकि हर आदमी 
अपना प्रभावशाली वक्तव्य सुनाना चाहता है !
चिट्ठी छोटी सही 
छोटा सा मेसेज ही सही 
पढ़ने की फुर्सत नहीं 
पढ़ने लगे,सुनने लगे 
तो सलाह-मशविरे बीच से ही शुरू 
- पूरा कोई नहीं पढता 
सुनना तो बहुत दूर की बात है -
ज़िन्दगी स्केट्स पर है 
यह काम,वह काम 
यह ज़रूरत,वह ज़रूरत 
भावनाओं को समझने की बात दूर 
कोई सुनता भी नहीं 
भावनाएँ - बकवास हैं !
फिर प्रश्न तो है न कि 
अपनी बकवास किसे सुनाऊँ ?!

01 अप्रैल, 2014

नफ़रत से विरक्ति




नफ़रत ....!!!
हुई थी एकबारगी मुझे भी
शायद उम्र का तकाजा था !
पर जैसे जैसे उम्र
या शायद अनुभवों की उम्र बढ़ी
मैंने खुद को टटोला
नफ़रत का कोई अंश नहीं मिला
व्यक्ति,स्थान,परिस्थिति..
जिनसे मुझे नफरत हुई थी
उनका नामोनिशां तक नहीं मिला
तब जाना -
उन सब से मुझे विरक्ति हो गई
!
न स्थान बदलता है
न परिस्थिति
न व्यक्ति ....
तो उदासीन,विरक्त होना ही जीने की कला है
प्रतिक्रिया से परे
न उसकी उपस्थिति असर डाले
न अनुपस्थिति
.....
नफ़रत एक आग है
जो बुझती नहीं
और जब तक वह जलती है
न हम खुद को जी पाते हैं
न दूसरों के जीने को सहज ढंग से ले पाते हैं
तो इस आग से विरक्त होना श्रेयष्कर है
विरक्त मन निर्विकार हो जाता है
और निष्क्रियता सक्रियता में बदल जाती है ...
....
आसान नहीं होता
पर समय के हथौड़े
अंततः बेअसर होने को बाध्य कर देते हैं
या ..... हम याददाश्त को बदल लेते हैं !
कारण जो भी हो ...
नफरत बीमारी है
और प्राकृतिक सोच की दवा विरक्ति
जहाँ सच सच होता है
झूठ .......... एक मुस्कान दे जाता है
और कभी कभी खिलखिलाहट -
सुकून होता है - कि मोह और वैराग्य दोनों का पलड़ा बराबर है !!!

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...