30 मई, 2014

बंधन और बाँध - में फर्क है !



कोई बंधन में डाले
या हम स्वयं एक बाँध बनाएँ
- दोनों में फर्क है !
तीसरा कोई भी जब रेखा खींचता है
तो उसे मिटाने की तीव्र इच्छा होती है
न मिटा पाए
तो एक समय आता है
जब वह बोझ लगने लगता है !
प्यार, विश्वास का रिश्ता हो
हम उसकी महत्ता समझें
तो हम स्वयं बंध जाते हैं
कोई रेखा खींचने की ज़रूरत नहीं होती !
प्यार और अंकुश का अंतर समझना चाहिए  …
अंकुश की ज़रूरत
वो भी एक हद तक
बचपन में ही होती है
उसके बाद का प्रयास व्यक्ति को
अनायास उच्चश्रृंखल बना देता है
झूठ की उतपत्ति होती है
सम्मान खत्म हो जाता है
....
शर्त,वादे क्यूँ ?
जीतकर क्या ?
वादे ? - न निभाया जाए
तो याद दिलाने
चीखने-चिल्लाने से भी क्या ?
 हम चाहें
तो बिना किसी वादे के
बहुत कुछ कर सकते हैं  !
यह चाह अपनी होती है
यदि कोई और करवाए
फिर - आज न कल
विस्फोटक स्थिति आती ही है !
संस्कार
उदहारण
सब एक विशेष उम्र तक ही दिए जाते हैं
बाद में व्यक्ति स्वयं उदहारण होता है
जय या क्षय का  …

23 मई, 2014

याद है …?


याद है तुम्हें ?
जब पहली बार हमारा परिचय हुआ
तुम खुद में थी
मैं खुद में
फिर भी हम साथ चल पड़े थे  …

याद है न  …

तुम्हें याद है ?
तुम्हारे टिफिन और मेरे टिफिन में कितना फर्क होता था
तुम पूरियाँ लाती थी
मैं रोटी
तुम्हारे टिफिन से खाना मुझे अच्छा लगता था
लेकिन मेरी रोटियों को तुम नहीं छूती थी
मुझे गुस्सा आता
बुरा लगता
और मैं गर्व से कहती
- स्वास्थ्य के लिए यह अच्छा है
तुम्हारी पूरियों को कई बार मैंने भी ठुकराया  …

याद है न  …

क्या कहूँ ?
तुम्हारी सेहत भरी ज्ञान के आगे
मेरी पूरियों का मज़ा किरकिरा हो जाता था !
खैर छोड़ो,
वो समय कितना अच्छा था
विद्यालय का वार्षिक कार्यक्रम था
तुम मद्रासन लड़की बनी थी
मैं काश्मीरी
हम खाने की चीजें बेच रहे थे
खेल में हमने शतरंज चुना
हाहाहा - दो ही थे हम
तुम फर्स्ट हुई
मैं सेकेण्ड
रंगमंच पर जो काव्य-गोष्ठी हुई
तुम हरिवंशराय बच्चन बनी
मैं नीरज
कितना खुशनुमा था सबकुछ - है न ?

हाँ,  …।
आज भी वर्तमान सा सब याद आता है !
पर उसके बाद हम अपनी पढ़ाई को लेकर अलग हो गए
पर डाकिया हमारे खत
एक-दूसरे को देता था

वक़्त द्रुत गति से भागता गया  ....
अब हम सास हैं,नानी-दादी हैं
पर इन झुर्रियों की अनुभवी रेखाओं के पीछे
आज भी वह अल्हड़ शरारती लड़की है
जो बिना शरारत किये नहीं रहती थी  …
… याद है न ?
हाहाहाहा बिलकुल याद है

19 मई, 2014

पहले कोशिश करो



तुमने देखी है दुनिया,
महसूस किया है प्रकृति को,
खुली हवा में ध्यान किया है,
सूक्ष्म से सूक्ष्मतर की तलाश भी की है 
पढ़ा है बहुतों को 
लिखा भी है बहुतों को 
आओ आज एक दिन के लिए हेलेन कीलर बनो 
एक अँधेरे कमरे में बन्द हो जाओ 
कोई सुराख न हो रौशनी की  
बंद कर लो कान 
जिह्वा को कैद कर दो 
और पंछी के परों पर रखो हथेलियाँ 
गर्मी से सूखे होठों पर 
पानी की एक 
बस एक बूंद रखो 
………………फिर  सन्नाटे को बिंधती अपनी धड़कनो के साथ 
उसे सोचो  … सोचते जाओ 
शायद पूरे आकाश का आभास हो 
या पूरी नदी का 
छोड़ दो  खुद को निःशब्द अँधेरे समंदर में  … 
… हेलेन कीलर तो नहीं हो सकोगे 
पर पंछी के परों की अद्भुत व्याख़्या कर सकोगे 
पानी की शीतलता रूह तक जानोगे 
एक अंश हेलेन की दुनिया लिख सकोगे - 
वो भी शायद !
पढ़ना, लिखना, और जीना - 
तीन आयाम हैं - तीनों अलग 
सुनना, और उसे दुहराना - पूरी कहानी बदल जाती है 
हम न एक जैसा देखते हैं 
न एक जैसा पढ़कर, सुनकर लेते हैं 
फिर हेलेन का शाब्दिक चित्र कैसे बना सकते हैं  ?
एक अंश हुबहू के करीब जाने के लिए 
वक़्त,परिवेश  … बहुत कुछ खोना पड़ता है 
पहले यह तो कोशिश करो !

12 मई, 2014

आम और खास से परे - सच कहा न ?



मैं आम नहीं
पर उसी समूह में रहती हूँ
दिन और रात को जीने के लिए !
मैं खास भी नहीं
जिसे तुम नाम से पहचान लो …
मैं -
आम और खास से परे एक रहस्य हूँ !
ढाल लिया है मैंने अपने आप को
एक किताब में
जिसके पन्नों से आवाज आती है  …
मैं एक बोलनेवाली किताब हूँ
जिसे तुम चाहोगे पढ़ना
पर वह तुम्हें सुनाई देगा
वह भी, मेरी आवाज में !
तुम पढ़कर सुनाना भी चाहो किसी को
तो तुम्हारी धड़कनों से प्रतिध्वनित होकर
तुम्हारे स्वर में मेरी ही आवाज गूँजेगी  !
मेरे शब्द तुम्हारे अन्तर में समाहित होकर
उसकी बनावट बदल देंगे
तब तक -
जब तक तुम मुझे पढ़ोगे
और सोचोगे
… अतिशयोक्ति नहीं होगी
यदि कहूँ
कि खुद को ढूँढ़ते रह जाओगे !
उदहारण ले लो -
प्रेम !
कहते हैं लोग,
प्रेम फूल और भँवरा है
यह कथन
मात्र एक अल्हड़ उम्र का ख्याल है
उस उम्र से आगे
समय कहता है
प्रेम ईश्वर भी है,राक्षस भी
प्रेम अनश्वर है तो नश्वर भी
चयन तुम्हारा
नियति तुम्हारी
परिणाम अदृश्य  …
विश्वास हो तो भी प्रेम मर जाता है
शक हो तो भी प्रेम जी लेता है
प्रेम वक़्त का मोहताज नहीं
प्रेम अकेला भी सफ़र कर लेता है
कोई प्रेम के बाद भी प्रेम करता है
तार्किक अस्त्र-शस्त्रों से
सही होता है
पूर्ण होता है
दूसरी तरफ
कोई एक प्रेम का स्नान कर अधूरा होता है !
हम क्या चाहते हैं, क्या नहीं चाह्ते
इससे अलग एक पटरी होती है ज़िन्दगी की
जिसके समतल-ढलाव का ज्ञान मौके पर होता है
दुर्घटना - तुम्हारी असफलता हो
ज़रूरी नहीं
अक्सर सफलता के द्वार उसके बाद ही खुलते हैं
.... पर अगर तुमने असफलता को स्वीकार कर लिया
तो मुमकिन है
सफलता तुम्हारे दरवाजे तक आकर
बिना किसी दस्तक के लौट जाये !
आश्चर्य की बात मत करो
हतोत्साहित सिर्फ़ तुम नहीं होते
सफलता भी हतोत्साहित होती है
उसका इंतजार न हो
तो वह अपना रूख मोड़ लेती है !
पाना-खोना
हमारे परोक्ष और अपरोक्ष सत्य पर निर्भर है !
तुम-हम जो सोचते और देखते हैं
वह सच हो - मुमकिन नहीं
.... सच को देखना
सच का होना
दृष्टि,मन, मस्तिष्क की चाक पर
घूमता रहता है
रुई की तरह धुनता जाता है
अंततः जब उसका तेज समक्ष होता है
उसकी तलाश में रहनेवाले गुम हो जाते हैं
या याददाश्त कमजोर हो जाती है
या  … सत्य अर्थहीन हो जाता है !
आँख बंद होते
जिस सच को हम सजहता से कह-सुन के
स्वीकार करते हैं
वहाँ शरीर से पृथक हुई आत्मा
अट्टाहास करती है
फिर सिसकती है
इस अट्टाहास और रुदन में कई अबोले सच होते हैँ
जो दिल की धड़कन रोक कर
शरीर को साथ ले जाते हैं !
मैंने उस अट्टाहास और रुदन के बीच
अपने आप को एक गहरी खाई में देखा है
पहाड़ों से टकराकर आती प्रतिध्वनित सिसकियों में
स्नान किया है
फिर रेत में विलीन शब्द ढूँढे हैँ
एहसासों की चाक पर उन्हें आकृति दी है
… जो पूर्ण नहीं होते
कोई न कोई हिस्सा टेढ़ा रह जाता है
या दरका हुआ
पर शायद जीवन की पूर्णता इसी अपूर्णता में है
क्यूँ ? सच कहा न ?

08 मई, 2014

पाप पुण्य से परे



जीवन में सच हो या झूठ
- दोनों की अपनी अपनी कटुता है !

सच को अक्षरशः कहना संभव नहीँ होता
बात सिर्फ साहस की नहीं
दुविधा मर्यादा की होती है  …
फिर झूठ से सच की निर्मम हत्या हो ही जाती है !
सच सिर्फ़ यह नहीं
कि - सात फेरे सात वचन निभाने चाहिए
सच यह है कि इसे निभाने के लिए
झूठ की ऊँगली थामे
98 प्रतिशत लोग झूठे चेहरे लिए
चलते हैं,जीते हैं -
समाज,
परिवार,
बच्चे  .... इन कटु सच्चाईयों के लिए
और यह स्त्री-पुरुष दोनों की विडंबना है  !.
कारण भी पूर्णतः नहीं बता सकते
कभी जिह्वा कटती है
कभी हिम्मत नहीं होती
और कभी कहने की जुर्रत की
तो विरोध की हिकारत
- 'इस तरह खुद को जलील करने की ज़रूरत क्या है ?'
चुप्पी में सच की दर्दनाक स्थिति
हँसी में झूठ की निर्लज्जता
'काहू बिधि चैन नहीं'

हादसों का सच !!!
कौन कह पाता है ?
 खुलासे से तबीयत बिगड़ जाती है
यूँ भी खुलासे में सिर्फ़ अश्लीलता होती है
दर्द मर चुका होता है !
लोग नहीं जानें - इस ख्याल में
शहर बदल जाता है
नाम बदल जाता है
.... पूरा परिवेश बदल जाता है !
अंदर में सच हथौड़े चलाता है
झूठ
पत्थर और जीवन के बीच
भटकता जाता है !
…।
सच और झूठ - दोनों की अपनी मजबूरियाँ हैँ
पाप-पुण्य से परे

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...