29 अप्रैल, 2017

सिसकियों में शब्द गूँथना




तुम्हारी सिसकियों में शब्द ही शब्द थे
जिन्हें मैं सुनती रही
सिसकियाँ मेरी भी उभरी
निःसंदेह
उसमें मेरे आशीष के बोल थे !
...
मानती हूँ मैं
कि क्षणांश को
गुस्सा आता है
पर कई बार
उसकी अवधि बढ़ जाती है
शायद तभी
एक कमज़ोर रूह की मुक्ति
संभव होती हो  !

लेकिन इस मुक्ति के बाद
आसपास कई शून्य चेहरों का
होता है शून्य स्नान
जाने कितने शब्द अटके होते हैं
अवरुद्ध गले में
जाने कितने शब्द चटकते हैं
सिसकियों में
शरीर भी असमर्थ
रूह भी असमर्थ
!!!

भागता शरीर
ठहरा मन
बड़ी अजीब सी स्थिति होती है
... !!!
सुनो,
जब भी चाहो
सिसकियों में शब्द गूँथना
बीता हुआ वक़्त
गले लग जाता है
अच्छा लगता है  ...

15 अप्रैल, 2017

कहा था न ?




कहा था मैंने
शिकारी आएगा
जाल बिछाएगा ...
भ्रमित होकर
फँसना नहीं !

लेकिन शिकारी ने
तुम्हारी आदतों को परखा
पारदर्शी जाल बिछाया
दाने की जगह
 खुद जाल के पास बैठ गया
संजीदगी से बोला,
आओ ...
कुछ बातें करें !

आंखों में आंसू भरकर
वह कहानियाँ गढ़ता गया ...
तुम अपनी सच्ची ज़िन्दगी के पन्ने
मोड़ मोड़ कर हटाते गए
उसकी कहानियों में उलझते गए
और एक दिन
शिकारी के जाल में थे तुम !

बिना फँसे अनुभव नहीं होता
यह सोचकर
मैं तुम्हारा सर सहलाती गई
जाल को टटोलकर
काटती गई
लेकिन उसके धागे
तुम्हारे दिलो दिमाग को
महीनता से खुरच गए थे  ...
शिकारी का भय
तुम्हारी नींद उड़ा गया था
और मैं  ...
लोरी के सारे शब्द भूल गई !

उम्र बीतने लगी इस सोच में
कि
शिकारी को ढूँढूँ
उसके लिए जाल तैयार करूँ
या किसी जादुई मरहम से
सारे भय मिटा दूँ
खरोंच के निशान मिटा दूँ !!

लेकिन
जो हो जाता है
वह तो रह ही जाता है।
चेहरा सहज हो
चर्चा में शिकारी न हो
आगे के रास्तों पर कदम हो
फिर भी
मन और दिमाग
शिकारी और अपनी भूल को
याद रखता है  ...

तुम्हारे अनमने चेहरे का दर्द
मेरे एकांत में बड़बड़ाता है
कहा था न ?


12 अप्रैल, 2017

पापा तुम समझते क्यूँ नहीं ?




पापा 
आज मुझे तुमसे बहुत कुछ कहना है !

कहना है,
कि जब मैं हुआ 
और तुम मुझे अपनी गोद में लेकर 
इधर उधर घूमते थे 
तो दुनिया अपनी मुट्ठी में लगती थी !
सबकी उपस्थिति में 
मुझ अबोले को 
रहता था इंतज़ार 
तुम्हारे आने का। 
कॉल बेल बजते 
मेरे दिल में भी कुछ बजता था 
तुम्हारी पुकार पर 
मेरी मटकती आँखें बोलतीं 
पापाआआ  ... 
सोचो पापा 
मैं कितना समझदार था !
... 
घुटनों के बल चलकर 
जब मैं तुम्हारी ओर तेजी से आने लगा 
तुम विजयी मुस्कान से सबको देखते 
मैं तुम्हारी उस मुस्कान पर 
फ़िदा था 
तुम्हारी हर जीत 
मेरी जीत होती 
सोचो पापा 
मैं कितना समझदार था !
... 
धीरे धीरे मैं चलने लगा 
सीखने लगा 
कुछ शब्द 
कुछ अच्छी आदतें 
लेकिन 
तुम्हारी जीत की परिभाषा बदलने लगी 
तुम चाहने लगे 
मैं सबसे ज्यादा शब्द बोलूँ 
सबसे पहले बोलूँ 
किसी भी अजनबी के आते 
उसे प्रणाम करूँ 
सलीके से बैठूँ 
ताकि तुम्हारी तारीफ़ हो  ... !

मैं धीरे धीरे बड़ा होना चाहता था 
और तुम  ... 
जाने कैसा बड़ा मुझे बनाना चाहते गए 
कितना कुछ सिखाते गए 
और पापा 
तब मैं ऊब गया 
मेरी जिह्वा से
स्वाद खत्म हो गया 
मेरी चुप्पी
मेरी ज़िद्दी दोस्त बन गई 
आक्रोश दिखाते हुए तुम भूल गए 
कि अपनी उम्र के अनुसार 
मैं वह नहीं सीख सकता 
जो मेरी कल्पना को 
दूसरी दिशा दे दे  ... 
पापा 
कल्पनाएँ अपनी होती हैं 
उसकी कहानियाँ होती हैं 
उन्हें किसी और पर थोपा नहीं जाता 
खासकर किसी बच्चे पर !!

अब मैं रात दिन यही सोचता हूँ 
कि तुम 
हाँ पापा तुम -
कितने ज़िद्दी हो 
तुम समझना ही नहीं चाहते 
कि 
इतना आसान नहीं होता सिखाना 
गुस्से से तो बिल्कुल नहीं  ... 

सिखाने के लिए 
धैर्य का होना ज़रूरी होता है 
साथ साथ करना होता है 
बच्चे को उठाने के लिए 
झुकना होता है 
उसकी पसंद नापसंद को 
जानने और समझने के लिए 
उसे वक़्त देना होता है 
... 
अगर तुम मुझसे दुखी हो 
तो मैं भी तुमसे दुखी हूँ 
इस बात को 


पापा तुम समझते क्यूँ नहीं ? 

06 अप्रैल, 2017

अदृश्य हो गई हूँ




बहुत कुछ" जो मैं थी
बहुत से" जो मेरे ख्याल थे
अब मेरे साथ नहीं
...
दुःख की बात नहीं !!!
ऐसा होता है !!!!!

और
 इसे इत्तफ़ाक़ कहो
या होनी
परोक्ष या प्रत्यक्ष
असंभव या चमत्कार
तुमने मेरे भीतर के समंदर की
दिशा ही बदल दी  ...

मेरी सहनशीलता की नम रेत से
तुमने अनगिनत घरौंदे बनाए
फिर जब भी आगे बढे
उन्हें ठोकर से तोड़ दिया ...

मेरे प्रेम की अतिरेक लहरों ने
टूटे घरौंदों को समेट लिया
ये अलग बात है
कि रात के सन्नाटे में
मैं अपने किनारों से जूझती हुई
हाहाकार करती रही !
पर सुबह की किरणों के साथ
मैं संगीतमय हो गई  ...

लेकिन अब
न मेरे इर्द गिर्द रेत है
न मेरी लहरों में वो उल्लास
सूर्योदय हो
या सूर्यास्त
मैं नहीं गुनगुनाती  ...

सरगम जीवन से जुड़ा होता है
और
....
जो भी वजह मान लो
मैं सिमटकर नदी हो गयी हूँ
जो अब अदृश्य हो गयी है
...
लुप्त है वो
जिसे मैं ढूंढना भी नहीं चाहती !

02 अप्रैल, 2017

गुज़ारिश




गुज़ारिश है
मेरी मौत के बाद
मेरे पार्थिव शरीर के पास
मेरी अच्छी बातें मत करना
मेरे स्वभाव की सकारात्मक विशेषताओं  का
सामूहिक वर्णन मत करना
...
जो कुछ मेरी चलती साँसों के साथ नहीं था
उसे अपनी जुबां में
दफ़न ही रहने देना
अपनी बेवजह की स्पर्द्धा में
जो कुछ तुम मेरे लिए सोचते
और गुनते रहे
उसे ही स्थायित्व देना !

मेरी कोई भी अच्छाई
जो मेरे होते
कोई मायने नहीं रखती थी
उसे अर्थहीन ही रहने देना
सामाजिकता का ढकोसला मत करना
मेरे मृत शरीर पर
फूल मत चढ़ाना  ....

शिकायत तुम्हें रही हो
या फिर
 शिकायत मुझे रही हो
कौन सही था !
कौन गलत था !
इसकी पेचीदगी बने रहने देना
झूठी कहानियाँ मत गढ़ना
...
यकीन रखो,
मेरी रूह को
तुमसे फिर कोई शिकायत नहीं होगी
तुम्हारी ख़ामोशी
मेरी यात्रा में
एक अनोखा योगदान होगी
तुम्हें भी सुकून होगा
कि
विदा की बेला में
तुमने कोई बनावटी अपनापन नहीं दिखाया  ...

दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...