04 जून, 2017

एक उम्र की दिनचर्या और सोच




चलो कहीं बाहर चलते हैं
सुनते ही मन खाली हो जाता है
दूर दूर तक
कोई सीधी सड़क नज़र ही नहीं आती
न पेड़ों का समूह
न अपनेपन की हवा
बड़बड़ाने जैसा
होठों से फिसलते हैं शब्द
- कहाँ जाना !!!

जानती हूँ,
यह अच्छी बात नहीं
पर,
पहले जैसी कोई बात भी तो नहीं
न किसी से मिलने का मन
न बातों का सिलसिला
अकेला रूम अब आदत में शुमार है !

एक कुर्सी
कुछ भी खाने के लिए
शाम का इंतज़ार
बीच बीच में फ़ोन
छोटी
लम्बी बातचीत  ...
बाहर सबकुछ शांत
भीतर हाहाकार
!!!
प्रश्नों का सैलाब
यादों की लहरें
अनहोनी की सुनामी
कभी आँखें शुष्क रह जाती हैं
कभी होती हैं नम
कुछ बताते हुए किसी को
अचानक लगता है,
क्या व्यर्थ साझा किये जा रहे
... इसी तरह
रोज रात आ जाती है
घड़ी पर नज़र जाते
दिल धक से बैठ जाता है
कुछ दवाइयाँ गुटक कर
टुकुर टुकुर छत देखते हुए
करवट लेती हूँ
बीच में पुनः करवट बदलने के दरम्यान
यह ख्याल मन को सुकून देता है,
वाह, मुझे नींद आ गई थी !
कब?
हटाओ यह प्रश्न
 आ गई - यह बड़ी बात है
और एक नया दिन फिर सामने है  ...

4 टिप्‍पणियां:

  1. अकेलेपन की त्रासदी का सटीक चित्रण जहाँ मन भी मरने लगता है और जीना जैसे सजा

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  2. बढ़िया अन्दाज में लिख देना तभी हो पाता है जब कुछ समझ में आता है दिन ही सही ।

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  3. आज के समय में महज औपचारिकता में जीते लोगों को देख गुजरे दिन की यादें जेहन में आकर एक टीस छोड़ हलचल मचा ही देती है ........
    मर्मस्पर्शी रचना

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दौड़ जारी है...

 कोई रेस तो है सामने !!! किसके साथ ? क्यों ? कब तक ? - पता नहीं ! पर सरपट दौड़ की तेज़, तीखी आवाज़ से बहुत घबराहट होती है ! प्रश्न डराता है,...